सुप्तवज्रासन

सुप्तवज्रासन
ध्यान विशुद्धाख्याचक्र में। श्वास दीर्घ, सामान्य।
विधिः 
  • वज्रासन में बैठने के बाद चित्त होकर पीछे की ओर भूमि पर लेट जायें। दोनों जंघाएँ परस्पर मिली रहें। अब रेचक करते बायें हाथ का खुला पंजा दाहिने कन्धे के नीचे इस प्रकार रखें कि मस्तक दोनों हाथ के क्रास के ऊपर आये। रेचक पूरा होने पर त्रिबन्ध करें। दृष्टि मूलाधार चक्र की दिशा में और चित्तवृत्ति मूलाधार चक्र में स्थापित करें।
लाभः 
  1. यह आसन करने में श्रम बहुत कम है और लाभ अधिक होता है। इसके अभ्यास से सुषुम्ना का मार्ग अत्यन्त सरल होता है। कुण्डलिनी शक्ति सरलता से ऊर्ध्वगमन कर सकती है।
  2. इस आसन में ध्यान करने से मेरूदण्ड को सीधा करने का श्रम नहीं करना पड़ता और मेरूदण्ड को आराम मिलता है। उसकी कार्य़शक्ति प्रबल बनती है। इस आसन का अभ्यास करने से प्रायः तमाम अंतःस्रावी ग्रन्थियों को, जैसे शीर्षस्थ ग्रन्थि, कण्ठस्थ ग्रन्थि, मूत्रपिण्ड की ग्रन्थी, ऊर्ध्वपिण्ड तथा पुरूषार्थ ग्रन्थि आदि को पुष्टि मिलती है। फलतः व्यक्ति का भौतिक एवं आध्यात्मिक विकास सरल हो जाता है। तन-मन का स्वास्थ्य प्रभावशाली बनता है। 
  3. जठराग्नि प्रदीप्त होती है। मलावरोध की पीडा दूर होती है। धातुक्षय, स्वप्नदोष, पक्षाघात, पथरी, बहरा होना, तोतला होना, आँखों की दुर्बलता, गले के टान्सिल, श्वासनलिका का सूजन, क्षय, दमा, स्मरणशक्ति की दुर्बलता आदि रोग दूर होते हैं।